रूसी जनता और सोवियत ज़माने की यादें
रूस में आज भी लोग सोवियत ज़माने को याद करते हैं और आहें भरते हैं
8 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ के तीन गणराज्यों – रूस, उक्रईना और बेलारूस – ने जब सोवियत संघ को समाप्त करने वाली बेलावेझ सहमति पर हस्ताक्षर किए थे तो मरात की उम्र बस, कुछ ही महीनों की थी। मरात ने सोवियत संघ की ज़िन्दगी नहीं देखी है, लेकिन इसके बावजूद भी मरात सोवियत संघ को याद करके आहें भरते रहते हैं।
आज मरात की उम्र 25 साल है और वे रूस के एक मन्त्रालय में काम करते हैं। अपने वेतन और जीवन से वे पूरी तरह सन्तुष्ट हैं, लेकिन फिर भी वे यह मानते हैं कि सोवियत संघ में जीवन आज के मुक़ाबले कहीं बेहतर था। मरात का कहना है – सोवियत सत्ता काल में देश में शिक्षा निशुल्क थी और चिकित्सा सेवाएँ भी निशुल्क थीं। लोग साधारण ढंग से रहते थे, लेकिन सरकार जनता की देखभाल और चिन्ता किया करती थी। जबकि आज सिर्फ़ पैसे का राज है। देश में असमानता और ग़रीबी फैली हुई है। जिसके पास ताक़त है, वही सच्चा है। सोवियत संघ में ऐसा नहीं था।
अतीत से लगाव
मरात ऐसे अकेले रूसी नहीं हैं, जो इस तरह से सोचते हैं। रूस में कराए गए एक जनसर्वेक्षण के अनुसार, रूस की 50 प्रतिशत से ज़्यादा जनता सोवियत संघ के ग़म में दुखी है। अप्रैल 2016 में ’लेवादा सेन्त्र’ नामक एजेंसी ने जब जनसर्वेक्षण किया था तो रूस के 56 प्रतिशत लोग ऐसे थे, जो सोवियत संघ में रहना चाहते हैं। हाल ही में रूस की सरकारी जनसर्वेक्षण एजेंसी द्वारा कराए गए एक अन्य जनसर्वेक्षण के अनुसार, अब 64 प्रतिशत लोग सोवियत संघ के पक्ष में मतदान करने की बात कह रहे हैं। उनका कहना है कि 17 मार्च 1991 को सोवियत संघ को सुरक्षित रखने या न रखने के बारे में जो जनमत-संग्रह कराया गया था, अगर आज वह जनमत-संग्रह कराया जाए तो आज भी वे सोवियत संघ को सुरक्षित रखने के पक्ष में मतदान करेंगे।
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वैसे तो रूस के ग्रामीण निवासियों यानी सामाजिक रूप से असुरक्षित जनता के बीच और 55 वर्ष से अधिक उम्र वाले रूस के निवासियों के बीच सोवियत सत्ता के प्रति लगाव और मोह आज भी दिखाई देता है– ’लेवादा सेन्त्र’ एजेंसी की समाजशास्त्री करीना पीपिया ने कहा – लेकिन मरात जैसे रूसी समाज के वे आधुनिक युवक-युवतियाँ भी सोवियत संघ के पतन पर दुखी दिखाई देते हैं, जो कभी सोवियत संघ में नहीं रहे। रूस की सरकारी जनसर्वेक्षण एजेंसी के प्रमुख मिख़ाइल ममोनफ़ ने बताया कि आज रूस का क़रीब आधा युवा वर्ग सोवियत संघ के ज़माने में रहना चाहता है।
ग़रीबी और पुरानी यादों का उभार
मिख़ाइल ममोनफ़ ने बताया कि सोवियत संघ को याद करते हुए अक्सर लोग एक जैसी बातें दोहराते हैं कि सोवियत सत्ता काल में देश एक महाशक्ति था और देश में जनता सामाजिक रूप से सुरक्षित थी। तब वेतन कम थे, लेकिन सुनिश्चित थे। हर आदमी के लिए रोज़गार की गारण्टी थी। अब आज की बाज़ार व्यवस्था में कठोर प्रतिस्पर्धा का ज़माना आ गया है। अब यह नहीं पता कि कब आपको नौकरी से निकाल दिया जाएगा। इसलिए लोग पुराने सोवियत ज़माने को ही बेहतर बताते हैं।
’लेवादा सेन्त्र’ द्वारा किए गए जनसर्वेक्षण ने दिखाया कि सन् 2000 में रूस के निवासी सोवियत संघ के पतन को लेकर सबसे ज़्यादा दुखी थे। तब रूस की 75 प्रतिशत जनता वापिस सोवियत ज़माने में लौट जाना चाहती थी। फिर इक्कीसवीं सदी के शुरू के सालों में रूस की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी और 2012 में सिर्फ़ 49 प्रतिशत रूसी नागरिक ही सोवियत ज़माने के लिए तरसते थे। लेकिन 2013 में ऐसे लोगों की संख्या फिर से बढ़नी शुरू हो गई।
मिख़ाइल ममोनफ़ ने कहा – इससे पता लगता है कि सोवियत ज़माने को याद करने का मुख्य कारण आर्थिक है। वर्ष 2000 में रूस में ग़रीबी बहुत बढ़ गई थी, इसलिए लोग सोवियत समय की आर्थिक स्थिरता को याद किया करते थे। फिर इक्कीसवीं सदी के शुरू के सालों में रूसी जनता की आय बढ़ने लगी और रूस की आर्थिक स्थिति बेहतर होने लगी। रूसी लोगों ने भी सोवियत ज़माने के लिए तड़पना बन्द कर दिया। लेकिन जब रूस की आर्थिक स्थिति फिर से बदतर होने लगी तो उन्हें सोवियत ज़माना फिर से याद आने लगा।
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सोवियत संघ एक मिथक है, वास्तविकता नहीं
नीना मिचताएवा 65 साल की हैं। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का एक लम्बा हिस्सा सोवियत संघ में गुज़ारा है। लेकिन अपने हमउम्र दूसरे लोगों की तरह वे सोवियत संघ के ज़माने में लौटना नहीं चाहतीं। उनका मानना – हाँ, आज हालत पूरी तरह से अच्छी नहीं है, लेकिन जो लोग यह कहते हैं कि सोवियत संघ का जीवन बेहतरीन जीवन था, वे यह भूल जाते हैं कि तब भी हमें कितनी परेशानियाँ और दिक़्क़तें उठानी पड़ती थीं। दुकानों में हर चीज़ ख़रीदने के लिए कतार में लगना पड़ता था। अस्पतालों में भी लम्बी-लम्बी लाइनें हुआ करती थीं। सोवियत संघ तब दुनिया से पूरी तरह से कटा हुआ था। नीना को लगता है कि वही लोग सोवियत ज़माने में लौटना चाहते हैं, जिन्हें अपने जवानी के दिन याद आते हैं, जो उन्होंने उस सोवियत संघ में बिताए थे।
मिख़ाइल ममोनफ़ नीना मिचताएवा की इस बात से सहमत हैं कि सोवियत संघ की छवि और वास्तविक सोवियत संघ में बहुत बड़ा फ़र्क है। आज लोग सोवियत संघ को आदर्शवादी देश बनाकर पेश करते हैं। लोग सोवियत जीवन की कमियों को भूलकर उसकी कुछ ख़ासियतों का महिमामण्डन कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बीता हुआ ज़माना कभी वापिस नहीं आता।
याद करने और कोशिश करने में बड़ा फ़र्क़ है
हालाँकि रूसी जनता के बीच सोवियत जीवन बहुत लोकप्रिय है और उसे समाजवाद से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन इसके बावजूद रूस की आज की वामपन्थी पार्टियाँ सोवियत ज़माने को वापिस लौटाने की कोई कोशिश नहीं करतीं। विगत 18 सितम्बर को रूस में हुए संसदीय चुनावों में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी को सिर्फ़ 13 प्रतिशत मत मिले, जबकि 2011 में उसे 19 प्रतिशत मत मिले थे। इससे पता लगता है कि रूसी जनता के बीच रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता कितनी कम हो गई है। मिख़ाइल ममोनफ़ कहते हैं – सोवियत संघ के प्रति लगाव आज की कम्युनिस्ट पार्टियों या ट्रेड यूनियनों के प्रति लगाव के रूप में सामने नहीं आता। वह सोवियत सघ के प्रति आम जनता के लगाव में नहीं बदल जाता है। इसके अलावा रूस के 70-75 प्रतिशत लोगों का यह भी मानना है कि बीता हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा।
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