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हँसिया और हथौड़ा : सोवियत संघ का रहस्यमय प्रतीक-चिह्न

हँसिया और हथौड़ा — सोवियत संघ का जाना-माना प्रतीक-चिह्न रहा है। यह प्रतीक-चिह्न कैसे बना? इसकी उत्पत्ति का इतिहास भी रहस्यों से भरा है। इस प्रतीक-चिह्न में फ़्रीमसोनरी नामक गुप्त और रहस्यपूर्ण धार्मिक यूरोपीय समाज, हिन्दूवाद, प्राचीन आर्य और स्लाव सभ्यताओं के मिथक आदि छिपे हुए हैं— ये सारी चीज़ें सोवियत संघ के प्रतीक-चिह्न बने इन दो मज़दूरी के उपकरणों मेंं छिपी हुई हैं।

सोवियत प्रतीक-चिह्न कहाँ से आया, इतिहासकारों के लिए यह बात अभी तक अस्पष्ट है। शुरू में सोवियत सत्ता के प्रतीक के तौर पर कई विकल्प तैयार किए गए थे, जैसे — हँसिया और हथौड़ा, हथौड़ा और खुरपी, हथौड़ा और हल, हथौड़ा और फावड़ा आदि। परम्परा से ही यूरोप में हथौड़े को मज़दूरों का प्रतीक माना जाता रहा है। उसके साथ-साथ किसानों के प्रतीक के तौर पर किसानी का कोई उपकरण जोड़ा जाना था, जो लेनिन के प्रसिद्ध नारे ’सर्वहारा मज़दूर और सर्वहारा किसान की एकता’ को सिद्ध करते हों। अक्तूबर 1918 में सोवियत संघ के प्रतीक-चिह्न की अन्तिम रूप से पुष्टि कर दी गई। इसके लिए चित्रकार येव्गेनी कमज़ोलकिन के डिजाइन को चुना गया। 1918 की गर्मियों में सोवियतों के पाँचवे सम्मेलन में इस प्रतीक-चिह्न को स्वीकार कर लिया गया। 

रूसी जनता और सोवियत ज़माने की यादें

दिलचस्प बात तो यह है कि चित्रकार येव्गेनी कमज़ोलकिन न सिर्फ़ कम्युनिस्ट नहीं थे, बल्कि वे धर्म में गहरा विश्वास रखते थे और बड़े सम्पन्न परिवार के सदस्य थे। क़रीब दस साल से वे लियोनार्दो द विन्सी नामक एक रहस्यमयी कला समाज के सदस्य थे और उन्हें प्रतीक-चिह्नों के महत्व की बड़ी अच्छी जानकारी और ज्ञान था। इसलिए यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि ’हँसिया और हथौड़ा’ प्रतीक-चिह्न गुप्त और रहस्यपूर्ण धार्मिक यूरोपीय समाज ’ फ़्रीमसोनरी’ के प्रतीक-चिह्न ’हथौड़े और छेनी’ से काफ़ी मिलता-जुलता था। इन दोनों ही प्रतीकों का उद्देश्य पहले ही स्पष्ट रूप से पारिभाषित है। छेनी काटने का काम करती है और हथौड़ा चोट करने का। यूरोपीय धार्मिक प्रतीकों में हथौड़े को हमेशा पुरुष की शारीरिक ताक़त  (यूनान के हेपेस्टस लोहार का हथौड़ा) और मृत्युवाहक उपकरण के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। यह स्लाव जाति का स्वरलोग देवता, स्कैंडिनेवियाई थोर देवता जैसे देवताओं के हाथों में दिखाया जाता है। चीन और भारत में हथौड़े को विनाशकारी बुरी शक्तियों की विजय का प्रतीक माना जाता है।

आज यह बताना बहुत मुश्किल है कि चित्रकार येव्गेनी कमज़िलकिन ने ’हँसिया और हथौड़े’ को प्रतीक-चिह्न के रूप में बनाते हुए किन विचारों को इस चिह्न में प्रतिबिम्बित किया था। क्या कमज़ोलकिन ने क्रान्तिकारी सरकार के आदेश को मानते हुए किसान और मज़दूर की ताक़त और एकता को ही इस प्रतीक-चिह्न में व्यक्त करना चाहा था या फिर उन्होंने मृत्यु, युद्ध और बुराई की विजय के ये प्रतीक चुनकर रूस की तत्कालीन  क्रान्तिकारी सरकार के प्रति अपने मन की भावनाओं को व्यक्त किया था।

दुनिया भर में लेनिन के पाँच प्रमुख स्मारक

रूसी दार्शनिक अलिक्सेय लोसफ़ ने सोवियत संघ के प्रतीक-चिह्न का यह मूल्यांकन किया है — यह एक ऐसा संकेत है जो आम लोगों को, आम जनता को सक्रिय रखता है। लेकिन यह  सिर्फ एक संकेत ही नहीं है, बल्कि मानव की सक्रियता और  उसकी इच्छाशक्ति, उसकी आकांक्षाओं  को व्यक्त करने वाला एक संरचनात्मक और तकनीकी सिद्धान्त भी है। ... यह मज़दूरों और किसानों की एकजुटता का, सोवियत सत्ता की एकजुटता का प्रतीक है। 

1921 में  प्रसिद्ध इतिहासकार और अकादमीशियन यूरी गोत्ये ने अपनी डायरी में लिखा था — पिछले कुछ दिनों से मस्क्वा में तनाव बना हुआ है। पता नहीं, इस तनाव का ख़ात्मा कैसे होगा? इसका जवाब ’हथौड़ा और हँसिया’ में छुपा हुआ है। ’हँसिया और हथौड़े’ को मैंने उलटकर कहा है। इसका मतलब होता है — सत्ता। मस्क्वावासी इस तरह से बोल्शेविकों की तानाशाही प्रवृत्तियों की ओर इशारा करते हैं।

अनेक धर्मों में और धार्मिक प्रतीकों में ’हथौड़े’ को मौत का पर्याय माना गया है। हँसिया और फ़सल को ईसाई धर्म में मानव-आत्माओं के रूप में चित्रित किया जाता है, जिन्हें विश्व के पतन के बाद ईश्वर इकट्ठा कर लेता है। दिलचस्प बात यह भी है कि मध्यकाल में मौत का प्रतीक दराँती या हँसिए के रूप में ही दिखाया जाता था। भारोपीय और स्लाव प्रकृति-पूजकों में मारा या मोराना नाम की एक देवी है, जिसे मौत की देवी माना जाता है। परम्परागत रूप से मारा या मोराना के हाथ में हमेशा एक दँराती या हँसिया दिखाई देता है। हिन्दूधर्म में शिव की बहन देवी काली के बाएँ हाथ में हमेशा एक हँसिया होता है। दिलचस्प बात यह भी है कि क्रान्तिकारी आस्ट्रिया के प्रतीक-चिह्न बाज़  ने भी अपने बाएँ पंजे में एक हँसिया पकड़ा हुआ है। सोवियत प्रतीक-चिह्न में भी हँसिया बाईं तरफ़ ही बना हुआ है।

रूस, उक्रईना, बेलारूस और कज़ाख़स्तान के बहुत से इलाकों, रेलवे प्लेटफ़ार्मो, गाँवों और क़स्बों का नाम आज भी ’हँसिया और हथोड़ा’ है। रूस के एक सबसे बड़े धातु कारख़ाने — मस्क्वा के इस्पात कारख़ाने का नाम भी ’हँसिया और हथौड़ा’ है। यह कारख़ाना 1917 की समाजवादी क्रान्ति से पहले एक फ़्राँसीसी उद्योगपति यूली गुझोन का था, जिसका बाद में क्रान्तिकारी सरकार ने राष्ट्रीयकरण करके उसका नाम बदल दिया था। स्तालिन के निजी डिजाइनकार मिरोन मिरझानफ़ ने ’हँसिया और हथोड़े’ के नाम से एक विशेष स्वर्ण-पदक भी बनाया था, जो समाजवादी श्रम के वीरों को प्रदान किया जाता था और सोवियत संघ का सबसे बड़ा पदक माना जाता था। कुल मिलाकर सोवियत संघ में 19 हज़ार लोगों को यह पदक प्रदान किया गया था।  

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