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जब भारत की प्रसिद्ध अभिनेत्री ने प्रसिद्ध रूसी चित्रकार से ब्याह किया

मस्क्वा (मास्को) स्थित पूर्वी देशों के कला-संग्रहालय को देखने के लिए आने वाले किसी भी भारतीय दर्शक का ध्यान तुरन्त ही संग्रहालय में रखी एक पेण्टिंग की ओर आकर्षित हो जाता है, जिसमें एक बेहद ख़ूबसूरत और प्रभावशाली महिला साड़ी में दिखाई दे रही है। हम में से बहुत से लोग भारत को आज़ादी मिलने के बरसों बाद पैदा हुए, इसलिए हम इस पेण्टिंग में चित्रित महिला को तुरन्त नहीं पहचान पाते। यह देविका रानी रेरिख़ का तैलचित्र है, जिसे रचा है उनके रूसी चित्रकार पति स्वितस्लाफ़ रेरिख़ ने। देविका रानी को लोग आज भी भारतीय फ़िल्म जगत की उस पहली महिला के रूप में जानते हैं, जिन्हें अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जाना-पहचाना गया था।  

देविका रानी उन दिनों लन्दन में पढ़ रही थीं, जब अचानक उनकी मुलाक़ात भारतीय फ़िल्म-निर्माता हिमांशु राय से हुई। हिमांशु राय को पहली ही नज़र में लड़की पसन्द आ गई और उन्होंने देविका रानी के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रख दिया। हिमांशु राय से विवाह करके देविका रानी मुम्बई आ गईं और फ़िल्मों में अभिनय करने लगीं। फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार और देविका रानी की जोड़ी हिट हो गई और दोनों अक्सर एक साथ फ़िल्मों में दिखाई देने लगे। बाद में देविका रानी ने हिमांशु राय के साथ मिलकर बॉम्बे टाकीज की स्थापना की और बॉम्बे टाकीज के बैनर तले फ़िल्में बनाने लगे। 1940 में हिमांशु राय का देहान्त हो गया। इसके बाद देविका रानी अकेले ही बॉम्बे टाकीज का कामकाज देखने लगीं और उन्होंने एक से एक बढ़कर लोकप्रिय फ़िल्में बनाईं। 

एक रूसी चित्रकार की भारत की महायात्रा

1933 में भारत की पहली बोलती फ़िल्म ’कर्मा’में काम करके देविका रानी ने एक नया रास्ता खोला। इसी फ़िल्म में उन्होंने पहली बार अँग्रेज़ी में एक गीत भी गाया।

अमर प्रेम 

1943 में परदे पर आई ’हमारी बात’देविका रानी की आख़िरी फ़िल्म थी, जिसमें उन्होंने अभिनय किया था। इसी फ़िल्म में उन्होंने राज कपूर नाम के एक नए और अनजान अभिनेता को भी एक छोटी-सी भूमिका दी थी। इसके एक साल बाद जब वे दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म ’ज्वार-भाटा’बना रही थीं, तभी उनकी मुलाक़ात रूसी चित्रकार स्वितस्लाफ़ रेरिख़ से हुई। स्वितस्लाफ़ रेरिख़ के पिता निकलाई रेरिख़ दुनिया के एक जाने-माने चित्रकार, लेखक और दार्शनिक थे, जिन्हें रहस्यवादी चित्रकार और लेखक माना जाता था।

देविका रानी अपनी फ़िल्मों के सेट बनवाने के लिए किसी अनूठे और अनोखे चित्रकार की तलाश कर रही थीं। और उनकी यह तलाश स्वितस्लाफ़ रेरिख़ के स्टूडियो में पहुँचकर पूरी हुई। इस नई खोज ने तो जैसे उनके जीवन की धारा ही बदल दी। देविका रानी और स्वितस्लाफ़ दोनों एक-दूसरे पर फ़िदा हो गए और एक साल के भीतर-भीतर उन्होंने विवाह कर लिया। 

देविका रानी और स्वितस्लाफ़ रेरिख़। स्रोत : Press photo

शक्ति सिंह चन्देल ने बताया — कुल्लू के लोगों ने बड़ी धूमधाम से दोनों के विवाह का उत्सव मनाया। कुल्लू घाटी के 365 देवताओं के प्रतिनिधि देविका रानी का स्वागत करने के लिए आए थे। कुल्लू के स्थानीय निवासी हर्षोल्लास से गा-बजा रहे थे और झूम-झूमकर नाच रहे थे। जिस पालकी में बैठकर देविका रानी अपनी ससुराल पहुँची, उस पर लगातार फूल बरसाए जा रहे थे।

विवाह के बाद देविका रानी ने फ़िल्मों को और अपने फ़िल्मी करियर को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी और वे कुल्लू घाटी में आकर रहने लगीं। लेकिन उन्होंने बस, चार बरस ही कुल्लू में बिताए। उसके बाद रेरिख़ दम्पती हमेशा के लिए बेंगलुरु चले गए। लेकिन कुल्लू घाटी के अनुपम दृश्य-चित्र और कुल्लू के लोगों की सरल-सहृदय छवि देविका रानी के हृदय में हमेशा के लिए अंकित हो गई।

निकलाय रेरिख़ : शम्बाला की खोज

देविका रानी ने पिछली सदी के नौवें दशक में अपनी पुरानी स्मृतियों में डूबते हुए लिखा था — कुल्लू में स्वितस्लाफ़ का घर था। वहाँ उनके अपने लोग रहते थे। वहाँ उनके माता-पिता रहते थे — प्रोफ़ेसर रेरिख़ और मादाम रेरिख़। वहाँ उनका भाई जार्ज रेरिख़ रहता था। कुल्लू के सुन्दर दृश्य भुलाए नहीं भूलते... अनूठा हिमालय... हिमपात और फिर वसन्तकाल में खिलने वाले वे मनोहर अद्भुत्त फूल... वहाँ हमारा घर था, मेरा घर। पूरे घर में मुझे घर की दुलारी और प्यारी बिटिया की तरह प्यार किया जाता था और स्वितस्लाफ़ पति होने के साथ-साथ मेरा एक बेहतरीन दोस्त भी बन गया था। 

तातागुनी जागीर 

रेरिख़ दम्पती ने 1949 में कुल्लू छोड़ दिया और वे बेंगलुरु के बाहरी इलाके में बनी तातागुनी जागीर में जाकर बस गए।

अन्तरराष्ट्रीय रेरिख़ स्मारक ट्रस्ट ने देविका रानी का परिचय इस तरह दिया है — स्वितस्लाफ़ के लिए जनसम्पर्क का सारा काम देविका ने सँभाल लिया था। वे भारत में और विदेशों में उनके चित्रों की प्रदर्शनियों का आयोजन किया करती थीं। उन्होंने ही कुल्लू के पास नग्गर में रेरिख़ जागीर में निकलाय और स्वितस्लाफ़ रेरिख़ की कला दीर्घा की स्थापना की। उनसे मिलने वाले लगातार समर्थन और प्रेरणा की वजह से ही स्वितस्लाफ़ रेरिख़ अपना ध्यान चित्र बनाने की ओर केन्द्रित रख सके और उन्होंने हिमालय की छवियों और दक्षिण भारतीय परिदृश्यों को समर्पित अभुत्त चित्र-शृंखलाएँ बनाईं। उन्होंने देविका रानी की ऐसी अद्भुत्त शबीहें (पोर्ट्रेट) बनाईं, जिनमें देविका रानी के प्रति उनका भरपूर प्यार और स्नेह छलकता है। 

स्वितस्लाफ़ रेरिख़ ने भारत की नागरिकता ले ली थी और उन्होंने अपना सारा जीवन बेंगलुरु में ही बिताया। भारतीय लोगों के बीच स्वितस्लाफ़ इतने ज़्यादा लोकप्रिय थे कि भारत की संसद के केन्द्रीय हाल में भारत के राजनेताओं की उनके द्वारा बनाई गई तीन शबीहें लगी हुई हैं। ये शबीहें हैं — पण्डित जवाहरलाल नेहरू का पोर्ट्रेट, श्रीमती इन्दिरा गाँधी का पोर्ट्रेट और सर्वपल्ली राधाकृषण का पोर्ट्रेट।

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हालाँकि रेरिख़ दम्पती एकान्तप्रिय थे और बहुत कम कहीं आते-जाते थे, लेकिन फिर भी वे बेंगलुरु के सांस्कृतिक और कला परिदृश्य में इतना ज़्यादा महत्व रखते थे कि उनके बिना बेंगलुरु की कोई भी सांस्कृतिक सन्ध्या अधूरी लगती थी। रेरिख़ दम्पती ने बेंगलुरु की एक मुख्य सांस्कृतिक संस्था कर्नाटक चित्रकला परिषद की स्थापना और उसका विकास करने में अपनी पूरी ऊर्जा और अपना पूरा जीवन लगा दिया। 

देविका रानी अपने समय की सबसे ख़ूबसूरत महिला थीं

’गलोर मिरर’ समाचारपत्र से बात करते हुए रेरिख़ परिवार के एक मित्र आर० देवदास ने कहा  — उनसे मेरा परिचय बस, यूँ ही हो गया था, लेकिन बाद में हमारे परिवारों के बीच गहरी मित्रता हो गई। हालाँकि देविका जी और डॉक्टर रेरिख़ अपने ही कामों में बेहद व्यस्त रहा करते थे। लेकिन फिर भी इतना तो कहना ही चाहिए कि डॉक्टर रेरिख़ एक अनूठे इंसान थे और देविका जी अपने ज़माने की सबसे ख़ूबसूरत औरत। 

पिछली सदी के आख़िरी दशक में देविका जी और रेरिख़ बहुत बीमार रहने लगे थे। फिर कुछ लोगों ने उनके घर चोरियाँ कीं और उनकी सम्पत्ति पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। स्वितस्लाफ़ रेरिख़ 1993 में गुज़रे और उनकी मौत के एक साल बाद देविका रानी ने भी यह दुनिया छोड़ दी। इस दम्पती के कोई सन्तान न थी। उनकी सम्पत्ति पर विवाद हुआ और मुक़दमेबाज़ी होने लगी। आख़िरकार भारत के उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक सरकार के पक्ष में अपना फ़ैसला दिया और 468 एकड़ वाली तातागुनी जागीर कर्नाटक की सरकार को सौंप दी गई।

उपसंहार

कर्नाटक सरकार तातागुनी जागीर को एक ऐसे संग्रहालय और सांस्कृतिक केन्द्र में बदलने के लिए काम कर रही है, जहाँ स्वितस्लाफ़ रेरिख़ के चित्रों की अलग से एक कला दीर्घा बनी होगी। हम सिर्फ़ यही आशा कर सकते हैं कि तातागुनी जागीर के पुराने रूप और स्वरूप को सुरक्षित रखा जाएगा ताकि यहाँ भी रेरिख़ परिवार की आत्मा वैसे ही गूँजती रहे, जैसे कुल्लू घाटी में बने रेरिख़ स्मारक में गूँजती है।

अजय कमलाकरन ’रूस-भारत संवाद’ के एशिया सम्बन्धी सलाहकार सम्पादक हैं। उनके अन्य लेख पढ़ने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें।

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