अब चीन और रूस अमरीका के ख़िलाफ़ मिलकर लड़ेंगे?
चीन की सैन्य योजनाओं पर डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों के असर का ठीक-ठीक आकलन करने के लिए सबसे पहले तो दो ज़रूरी ग़लतफ़हमियों से छुटकारा पाना ज़रूरी है।
पहली ग़लत धारणा यह है कि चीन पर हमले करते हुए डोनाल्ड ट्रम्प पूरी तरह से बराक ओबामा की पिछली अमरीकी सरकार के विपरीत नीतियाँ चला रहे हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। एशिया में उठाए जाने वाले अमरीकी क़दमों को बदलने और चीन के साथ संभावित टकराव की तैयारी करने का काम अमरीका की पिछली सरकार के कार्यकाल में ही शुरू हो चुका था।
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तभी अमरीका ने प्रशान्त महासागर के इलाके में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ानी शुरू कर दी थी और अपने सैन्य गठबन्धनों को मज़बूत करना शुरू कर दिया था। जहाँ तक ताइवान के साथ फ़ौजी और सैन्य तकनीकी सहयोग को बढ़ाने की बात है, तो ताइवान के साथ सहयोग भी अमरीका ने राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर के कार्यकाल में ही बढ़ाना आरम्भ कर दिया था।
डोनाल्ड ट्रम्प ने तो सिर्फ़ एशिया में पिछली ओबामा सरकार द्वारा शुरू की गई आर्थिक पहलों से यानी ट्रांस प्रशान्त सहयोग सम्बन्धी सन्धि से इनकार किया है। लेकिन उनके ऐसा करने के विशुद्ध घरेलू कारण हैं। ट्रम्प के ज़्यादातर मतदाताओं ने उन्हें वोट इसीलिए दिया था क्योंकि वे ट्रांस प्रशान्त सन्धि का विरोध कर रहे थे। अगर डोनाल्ड ट्रम्प इस सन्धि को रद्द नहीं करते, तो उनके मतदाता उन्हें कभी माफ़ नहीं करते।
चीन और अमरीका के बीच टकराव बढ़ता जाएगा
डोनाल्ड ट्रम्प के शासनकाल में प्रशान्त महासागर के इलाके में अमरीका द्वारा लागू की जाने वाली सैन्य-राजनीतिक नीतियों से अमरीकी नज़रिए में बदलाव के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते, बल्कि अब अधिक दृढ़ता और स्थिरता के साथ पुरानी नीतियों को लागू किया जा रहा है।
अमरीकी-चीनी रिश्तों में बढ़ता तनाव पहले ही नज़र आ रहा था, लेकिन अब यह तनाव और ज़्यादा तेज़ी से बढ़ेगा। दो देशों के बीच अचानक युद्ध शुरू हो जाने का ख़तरा पहले भी था, लेकिन अब वो और ज़्यादा साफ़ ढंग से नज़र आ रहा है। और चीन की सेना को और सैन्य राजनीतिक कार्यक्रम को प्रभावित करने वाले मुख्य कारण भी अब और ज़्यादा उभर कर सामने आ रहे हैं। चीन की विदेश नीति की सक्रियता और युद्ध की हालत में चीन के राजनीतिक नज़रिए के और कठोर होते जाने से जुड़ी जो प्रक्रियाएँ पिछले वर्षों में शुरू हुई थीं, अब उनकी गति पहले से और ज़्यादा तेज़ हो सकती है।
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दूसरी जिस चीज़ पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वह यह कि चीन अब अपने ज़्यादातर सैन्य कार्यक्रमों पर सक्रियतापूर्वक अमल कर रहा है। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के मुक़ाबले इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में महंगे और जटिल हथियारों का निर्माण करने की गति कई गुना बढ़ गई है और आने वाले पाँच-दस साल में यह गति और भी तेज़ी से बढ़ेगी। लम्बी दूरी के डोंगफ़ेंग-41 या डीएफ़-41 अन्तरमहाद्वीपीय मिसाइल जैसे आज सामने आने वाले बहुत से चीनी हथियारों का निर्माण पिछली सदी के नौवें दशक के अन्त में यानी आज से क़रीब 30 साल पहले ही शुरू कर दिया गया था।
आज जिस गति से सैन्य-तकनीक बदल रही है, उससे ज़्यादा तेज़ी से हमारी आज की दुनिया में राजनीतिक बदलाव हो रहे हैं। इसलिए सैन्य कार्यक्रम बनाते हुए छोटे से छोटे हर सम्भावित जोख़िम को भी ध्यान में रखना पड़ता है। इसीलिए चीन के सैन्य कार्यक्रम में पिछली सदी के अन्तिम दशक में ही काफ़ी हद तक इस बात को ध्यान में रखा गया था कि भविष्य में अमरीका के साथ सैन्य टकराव भी हो सकता है। इस तरह सैन्य कार्यक्रमों को बदलने की नहीं, बल्कि उनके उन्हीं क्षेत्रों में तेज़ी से बदलाव की बात की जा रही है, जो पहले ही शुरू कर दिए गए थे।
चीन अपनी धारणाओं को बनाए रखेगा
2014 से 2016 के बीच अमरीका द्वारा रूस पर द्बाव बढ़ाने का ही यह परिणाम निकला कि फ़ौजी और सैन्य तकनीकी क्षेत्र में रूसी-चीनी सहयोग बहुत तेज़ी से बढ़ा। दो देशों के बीच इस तरह के सहयोग का स्तर फिर से पिछली सदी के अन्तिम दशक के स्तर पर पहुँच गया। 2016 में रूस ने चीन को तीन अरब डॉलर से अधिक के हथियार बेचे। दो देशों के बीच विभिन्न प्रकार के सँयुक्त सैन्य अभ्यास भी अब पहले से ज़्यादा जटिल और विविध प्रकार के हो गए हैं।
अब यदि चीन पर अमरीका के दबाव का नया दौर शुरू होगा तो ऐसा लगता है कि चीन रूस के साथ सहयोग बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाएगा। हालाँकि व्यावहारिक स्तर पर देखें तो चीन-रूस सहयोग को विकसित करने के लिए उसकी आधारभूमि पहले ही तैयार की जा चुकी है। दो देशों की थल सेनाएँ, वायु सेनाएँ और नौसेनाएँ हर साल मिलकर बड़े सैन्याभ्यास करती हैं और दोनों देशों की मिसाइल सुरक्षा सेनाएँ भी युद्ध की स्थिति में सुरक्षा के बड़े सँयुक्त अभ्यास करती हैं। इसके अलावा दो देशों के सुरक्षा बल और कानून रक्षा संस्थाएँ भी मिलकर अनेक आतंकवादरोधी अभ्यास करती हैं। दोनों देशों के प्रतिनिधिमण्डल अक्सर एक-दूसरे के देशों की यात्रा करते हैं।
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आगे दोनों देश एक-दूसरे के साथ सैन्य-राजनीतिक गठबन्धन बनाकर सैन्य सम्पर्कों का औपचारिक रूप से गम्भीर विकास कर सकते हैं।
इस गठबन्धन के बन जाने से दोनों देश दुनिया के विभिन्न इलाकों में मिलकर कार्रवाई कर पाएँगे और चीन को रूस की ’परमाणु छतरी’ का संरक्षण भी मिल जाएगा। लेकिन इस तरह का क़दम उठाने के लिए रूस और चीन दोनों ही देशों को अपनी विदेश नीति की मूल अवधारणाओं पर विचार करना होगा। चीन सैद्धान्तिक रूप से पिछले बहुत से सालों से सैन्य गठबन्धनों में शामिल होने की नीति से इनकार करता रहा है। हालाँकि इस सवाल पर चीन में बहस चल रही है, लेकिन फिर भी किसी गठबन्धन में शामिल होना चीन के लिए बड़ा कठिन होगा।
इस तरह, हम यह समझ सकते हैं कि ट्रम्प सरकार की चीन के ख़िलाफ़ अधिक आक्रामक नीतियाँ चीन के जवाबी राजनीतिक नज़रिए को और अधिक कठोर बनाएँगी और चीन अपनी सुरक्षा के लिए रक्षा उद्योगों में निवेश बढ़ाता चला जाएगा।
यह भी हो सकता है कि सँयुक्त चीनी-रूसी सैन्याभ्यासों की संख्या अब पहले से ज़्यादा बढ़ जाए। हो सकता है कि चीनी सैन्य-तकनीकी परियोजनाओं पर अमल करने की गति तेज़ करने के लिए दो देशों के बीच सैन्य-राजनीतिक सहयोग का और व्यापक ढंग से विकास शुरू हो जाए। यह बात भी सच है कि अभी तक रूस और चीन में आपसी गठबन्धन करने के लिए अपनी नीतियों में बदलाव करने की कोई तैयारी दिखाई नहीं पड़ रही है।
वसीली काशिन मास्को के सुदूर-पूर्व शोध संस्थान और हायर स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में वरिष्ठ रिसर्च फ़ैलो हैं। इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने निजी विचार हैं।
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