मुम्बई और साँक्त पितेरबुर्ग के बीच आपसी भाईचारा
किसी भी रूसी व्यक्ति को पहली नज़र में मेरे गृहनगर मुम्बई को देखकर बड़ी आसानी से यह भ्रम हो सकता है कि मुम्बई शहर बिल्कुल मस्कवा (मास्को) जैसा ही है। जी हाँ, दोनों ही शहरों में तनावग्रस्त तथा आपाधापी से भरे हुए लोग भारी संख्या में हैं। कमाल की बात यह है कि आपाधापी मचाने वाले ये लोग पता नहीं क्यों, अपनी मंज़िल पर ज़्यादातर देर से ही पहुँचते हैं! मुम्बई और मस्कवा भारत और रूस के सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय केन्द्र माने जाते हैं। दोनों ही शहरों में ज़मीन-जायदाद बहुत महंगी है। ऐसा लगता है कि अचल सम्पत्ति की क़ीमतें अनावश्यक रूप से बहुत ज़्यादा हैं। किन्तु मुम्बई और मस्कवा के बीच की समानताओं की सूची बस यहीं पर ख़त्म हो जाती है।
मुम्बई का वास्तविक जुड़वा नगर तो साँक्त पितेरबुर्ग ही है। लेनिनग्राद (साँक्त पितेरबुर्ग का पिछला नाम) और बम्बई (मुम्बई का पुराना नाम) 1967 में ही औपचारिक रूप से बन्धु-नगर बन गए थे। अपने-अपने देश के वास्तविक राजनीतिक सत्ता केन्द्र से काफ़ी दूर स्थित इन दोनों ही शहरों पर पश्चिमी सभ्यता का भारी प्रभाव दिखाई देता है। दोनों ही शहरों के लोगों ने हमेशा से ही उदारवादी आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है।
साँक्त पितेरबुर्ग में हमेशा के लिए रह जाने की इच्छा क्यों होती है
अब शायद हमें रंगमंच के क्षेत्र में साँक्त पितेरबुर्ग और फ़िल्मनिर्माण के क्षेत्र में मुम्बई के योगदान का उल्लेख करना चाहिए। जहाँ एक ओर साँक्त पितेरबुर्ग में प्रख्यात बैले नर्तक-नर्तकियों और गायक-गायिकाओं की कोई कमी नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर मुम्बई के बिना भारतीय फिल्मोद्योग की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
इन दोनों ही नगरों में संस्कृति का बड़ा महत्व दिया जाता है। चाहे साँक्त पितेरबुर्ग में नेवस्की प्रोस्पेक्त मार्ग पर स्थित किसी पुराने गिरजे में पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम हो रहा हो अथवा मुम्बई के अनेक संगीत सभागारों में से किसी में कर्नाटक या हिन्दुस्तानी संगीत का कार्यक्रम चल रहा हो, श्रोताओं के बीच हर आयु वर्ग के संगीतप्रेमी दिखाई देंगे, जिनमें से ज़्यादातर लोग संगीत के मर्मज्ञ भी होंगे।
भारत के सिम्फ़नी आर्केस्ट्रा ने हाल ही में साँक्त पितेरबुर्ग में ज्याकोमो पूचिनी के संगीतमय नाटक ‘ला बोएम’ का मंचन किया। यह कार्यक्रम इतना सफल रहा कि सभी तीनों प्रस्तुतियों के टिकट हाथोंहाथ बिक गए। साँक्त पितेरबुर्ग शहर के निवासी भारतीय संगीत से बड़ा प्रेम करते हैं। यही कारण है कि भारतीय संगीतकारों के कार्यक्रमों में अक्सर यहाँ भारी भीड़ जुटती है।
मस्कवा और दिल्ली के लोग इस बात को लेकर बड़े सजग रहते हैं कि दूसरे लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। दूसरी ओर साँक्त पितेरबुर्ग और मुम्बई के लोग, ज़रा, बेपरवाह किस्म के होते हैं और यह चिन्ता नहीं करते कि दूसरे लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। कम से कम मेरा तो यही अनुभव रहा है कि किसी के पास आईफ़ोन होने या न होने के आधार पर उसका मूल्यांकन करने की बीमारी साँक्त पितेरबुर्ग तथा मुम्बई में मस्कवा और दिल्ली की तुलना में काफ़ी कम है।
संस्कृत और रूसी भाषाओं के बीच सास - बहू का रिश्ता
मस्कवा मेट्रो में सुबह के आठ बजे भी स्त्रियाँ ख़ूब सजी-धजी दिखाई देती हैं। ऐसे ही दिल्ली की चमकती-दमकती सुन्दरियाँ हर मौसम में अपने बनाव-सिंगार को लेकर बिल्कुल सजग दिखती हैं। वैसे तो इन सजी-धजी स्त्रियों को देखना किसी को भी अच्छा ही लगता है, लेकिन यह बात भी सच है कि ख़ुद महिलाओं के लिए भी ऐसी ही जगहों पर रहना अधिक आसान है, जहाँ पर दिखावे की आदत कम हो और लोग बनाव-सिंगार को लेकर थोड़े लापरवाह किस्म के हों।
मुम्बई और साँक्त पितेरबुर्ग में आपको अपनी मनमर्जी से रहने की पूरी आज़ादी होती है! यहाँ पर आपको जो इच्छा करे, कर सकते हैं, जो पहनने का मन करे, पहन सकते हैं और जिस तरह जी चाहे, रह सकते हैं। समुद्र के किनारे बसे इन दोनों महान नगरों का शायद यही अनकहा जीवन-दर्शन है।
बाल्टिक सागर के तट पर बसे साँक्त पितेरबुर्ग शहर का ठण्डा वातावरण हो या अरब सागर के तट पर बसी मुम्बई का गरम सुहाना मौसम, इन दोनों शहरों की हवा में आपको मुक्ति, ज्ञान, राजनीति के प्रति उदासीनता, खुलेपन और उदारता जैसी बातें एक समान रूप से घुली-मिली दिखाई देंगी।
मुम्बर्ई में आपको साँक्त पितेरबुर्ग की हल्की-फुल्की झलक दिख सकती है, लेकिन इसके लिए आपको थोड़ी खोजबीन करनी होगी। बहुत कम लोगों को यह पता है कि दादर के एक सिरे पर लेनिनग्राद चौक भी पड़ता है। हालाँकि मैं इसकी बात नहीं कर रहा था। दक्षिण मुम्बई के कुछ हिस्सों में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बनी अनेक ऐसी जीर्ण-शीर्ण इमारतें मौजूद हैं, जिन्हें देखकर हमें बड़ी आसानी से यह लगता है कि हम साँक्त पितेरबुर्ग के ऐतिहासिक केन्द्र में खड़े हुए हैं और वहाँ की इमारतों को देख रहे हैं।
जीवन और मौत के बीच झूलते लेनिनग्राद की विजय का दिन
ठीक इसी तरह साँक्त पितेरबुर्ग में भी मुम्बई की थोड़ी-बहुत झलक दिखाई देती है। वैसे यह साम्य यहाँ की प्राकृतिक छटा या स्थापत्य की तुलना में यहाँ की आबोहवा और जीवन-लय में अधिक दिखता है।
2017 में ये दोनों शहर एक दूसरे के बन्धु-नगर होने की पचासवीं जयन्ती मना रहे हैं। इस अवसर पर चित्र-प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाएगा। इसके साथ ही दोनों शहरों के बीच सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आदान-प्रदान भी होगा, लेकिन सच पूछा जाए, तो यह सब काफ़ी नहीं है।
बन्धु-नगर के इस अभिनव सम्बन्ध को ऊँचाई पर ले जाने के लिए बड़ी आसानी से और बहुत कुछ किया जा सकता है। मुम्बई भारत की वित्तीय राजधानी है और यहाँ के लोग राष्ट्रीय अभिनय कला केन्द्र जैसी प्रसिद्ध जगहों पर रूसी मरीन्स्की बैले मण्डली व एकल प्रस्तुतियों को देखने के लिए निश्चित रूप से दिल खोलकर खर्च करेंगे। सांस्कृतिक आदान-प्रदान वाले कार्यक्रमों से इन दोनों शहरों के रसिक लोगों को काफ़ी आनन्द भी आएगा।
बन्धु-नगर के इस सम्बन्ध को शैक्षिक आदान-प्रदान जैसे क्षेत्रों में भी बढ़ाया जाना चाहिए। बल्कि शैक्षिक आदान-प्रदान के इन कार्यक्रमों को स्कूली स्तर पर भी चलाया जाना चाहिए।
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इसके अलावा पर्यटन सहयोग के क्षेत्र में भी काफ़ी सम्भावनाएँ हैं। दोनों शहरों के बीच सीधी विमान सेवा शुरू करने से मुम्बई और साँक्त पितेरबुर्ग के बीच पर्यटकों की आवाजाही में काफ़ी वृद्धि होगी।
पुनश्च:
मुम्बई में जब कभी मैं समुद्र के किनारे टहलने के लिए जाता हूँ, तो प्रभात की किरणों की अनुपम छटा देखकर मुझे ‘रूस की उत्तरी राजधानी’ साँक्त पितेरबुर्ग के गर्मियों के अद्भुत दिनों और चाँदनी रातों की बरबस याद आने लगती है। मेरी कामना है कि इन दोनों बन्धु-नगरों के बीच और नज़दीकी बढ़े तथा उनके बीच का आपसी सम्बन्ध और मज़बूत हो।
अजय कमलाकरन ’रूस-भारत संवाद’ के एशिया सम्बन्धी सलाहकार सम्पादक हैं।
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