रूसी लोग कम्युनिस्ट क्यों बन गए थे?
अगर आज आप रूस में अपने क़रीब से गुज़रने वाले किसी व्यक्ति को ’कामरेड’ कहकर सम्बोधित करेंगे या उसके साथ विश्व मज़दूर आन्दोलन की बात करने की कोशिश करेंगे तो शायद वह आपकी तरफ़ अचरज भरी निगाह से देखने लगेगा। महान अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति होने और उसके फलस्वरूप बोल्शेविकों के सत्ता में आने के एक सदी बाद और 70 साल तक सफलतापूर्वक कभी तेज़ी के साथ तो कभी धीरे-धीरे कम्युनिज़्म का निर्माण करने के बाद आज के रूस में लोग साम्यवाद या कम्युनिज़्म में ज़रा भी विश्वास नहीं करते। कम्युनिस्ट पार्टी भी रूस की सत्ता व्यवस्था का एक हिस्सा बनी हुई है। पिछले संसदीय चुनावों में उसे, मात्र, 13 प्रतिशत वोट ही मिले हैं।
लेनिन, बोल्शेविक, सब कुछ पर नज़र रखने वाली और हर बात की ख़बर रखने वाली सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी — 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद यह सब कुछ इतिहास के गर्भ में समा चुका है। रूस में, बस, अब क्रेमलिन की मीनारों पर लगे लाल सितारे और पूरे देश में लगी 5300 लेनिन की मूर्तियाँ ही सोवियत संघ की याद दिलाती हैं। कुछ और दूसरे सोवियत स्मारक भी हैं, जिन्हें देखकर पुराने सोवियत संघ की याद ताज़ा हो जाती है। लेकिन ये स्मारक किसी भी रूप में उस पुरानी साम्यवादी विचारधारा की याद नहीं दिलाते हैं। हालाँकि 1917 में सभी कुछ बड़े उत्साह के साथ शुरू हुआ था।
रूस एक अमीर देश है या... ग़रीब देश?
नियमों के खिलाफ़ क्रान्ति
उन्नीसवीं सदी में वर्गसंघर्ष के सिद्धान्त की रचना करने वाले कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिख़ एंगेल्स को यह विश्वास था कि समाजवादी क्रान्ति उन्हीं देशों में होगी, जहाँ पूंजीवाद का भरपूर विकास हो चुका है और जहाँ ऐसा बड़ा मज़दूर वर्ग बन चुका है, जो पूंजीपतियों के अत्याचारों से त्रस्त है। तब रूसी साम्राज्य एक कृषिप्रधान देश था और 1897 की जनगणना के अनुसार, रूस की 77 प्रतिशत जनता तब किसान थी। इसलिए रूस को जर्मन विद्वानों ने ज़्यादा महत्व नहीं दिया था। उनका मानना था कि पहले रूस में पूंजीवाद का विकास होगा, मज़दूर वर्ग पैदा होगा, उसके बाद ही सर्वहारा मज़दूर वर्ग क्रान्ति करने के काबिल होगा। लेकिन घटनाओं ने एकदम दूसरा रूप ले लिया।
रूस में फ़रवरी 1917 में हुई क्रान्ति के बाद ज़ारशाही को ध्वस्त कर दिया गया। मार्च से अक्तूबर 1917 के बीच रूस में कई दलों के बीच सत्ता पर अधिकार करने के लिए संघर्ष हो रहा था। लेकिन इस संघर्ष में व्लदीमिर लेनिन के नेतृत्व में कट्टरपन्थी समाजवादी पार्टी के बोल्शेविक दल की विजय हुई। बोल्शेविकों ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद भयानक कष्ट और पीड़ा झेल रही रूसी जनता से यह वायदा किया कि वे उसे सब तकलीफ़ों से मुक्ति दिला देंगे और जनता के लिए सुख-सुविधाओं और ख़ुशियों भरे दिन लेकर आएँगे। उनके नारे थे — जनता को शान्ति, किसानों को ज़मीन, मज़दूरों को कारख़ाने और फ़ैक्ट्रियाँ तथा पूंजीपति वर्ग को मौत।
कम्युनिज़्म की विजय?
इतिहासकार अलिक्सान्दर अरलोफ़ ने लिखा है — बोल्शेविक दल उस समय एकमात्र ऐसी राजनैतिक शक्ति था, जिसने इस बात को समझ लिया था कि रूसी जनता के मन में सामाजिक घृणा का भाव पैदा हो चुका है और वह समतावादी न्याय चाहती है। रूस की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और लोक प्रशासन अकादमी के समाज विज्ञान विशेषज्ञ अलिक्सान्दर पीझिकफ़ अरलोफ़ की बात से सहमत हैं। उनका कहना है — रूस में बोल्शेविकों की विजय का तब मार्क्सवाद से कोई लेना-देना नहीं था।
रूस-भारत संवाद से बातचीत करते हुए अलिक्सान्दर पीझिकफ़ ने कहा — देखा जाए तो तब, उन्नीसवीं सदी के अन्त में और बीसवीं सदी के शुरू में रूस में दो तरह के लोग रह रहे थे। एक तो रूस में तब कुलीन लोग थे, बुद्धिजीवी थे और पूंजीपति थे, जो यूरोप के देशों की तरह ही अभिजात वर्ग से सम्बन्ध रखते थे और पश्चिम की तरह ही रूस में भी पूंजीवाद का विकास करने की इच्छा रखते थे। दूसरा वर्ग उन सर्वहारा लोगों का था, जिनमें ज़्यादातर लोग किसान और मज़दूर थे। ये लोग बहुसंख्यक थे और उनका जीवन एकदम दूसरे ढंग का था। उनके जीवन के नियम ही दूसरे थे।
रूस इतना महाविशाल देश कैसे बना?
ये लोग काफ़ी हद तक पितृसत्तात्मक माहौल में रहते थे। इनका जीवन एकदम मध्ययुगीन जीवन था, जो पुरानी रूढ़ियों में गहरा विश्वास रखते थे — पीझिकफ़ ने बताया — इनका समाज एकदम दूसरे ढंग का था। किसान सामूहिक रूप से भूमि के स्वामी थे और मिलकर खेती किया करते थे। इनके बीच निजी सम्पत्ति की प्रक्रिया अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी। अलिक्सान्दर पीझिकफ़ के अनुसार, जब बोल्शेविकों ने इस सर्वहारा वर्ग के सामने यह विचार रखा कि अभिजात वर्ग से उसकी सम्पत्ति छीन ली जाए और उसे बराबर-बराबर सभी लोगों के बीच बाँट दिया जाए तो यही लोग बोल्शेविकों के पीछे-पीछे चल पड़े और उन्होंने उनका समर्थन करना शुरू कर दिया।
देखा जाए, तो रूस के कृषक वर्ग में क्रान्ति से पहले ही कई सालों तक सोवियत सरकार की नीतियाँ छिपी हुई थीं। उनके मन में पहले से ही यह भावना घर कर चुकी थी कि सम्पन्न और समर्थ अभिजात वर्ग से सब कुछ छीन लेना चाहिए। इसीलिए 1917 में रूस की क्रान्ति सफल हुई। ऐसा नहीं था कि मार्क्सवादी विचारों में रूसी जनता के विश्वास की वजह से रूस में कम्युनिज़्म की जीत हुई थी।
सब पीछे छूट चुका है
जैसाकि अलिक्सान्दर पीझिकफ़ ने बताया — 1917 की अक्तूबर क्रान्ति के कुछ ही दशकों बाद ग़रीबों और सर्वहारा से मुक्त समाज और दुनिया में न्यायसम्मत व्यवस्था की स्थापना का विचार रूस की जनता के मन से पूरी तरह से उतर गया था। पिछली सदी के आठवें दशक में लिआनीद ब्रेझनिफ़ के शासनकाल में सोवियत समाज में यह बात पूरी तरह से उभरकर सामने आ चुकी थी कि सत्ताधारी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता जनता से पूरी तरह से कट चुके हैं और किसी तरह से रूस में अपनी सत्ता को बनाए रखना चाहते हैं। ये सत्ताधारी किसी उज्ज्वल भविष्य की ओर देश को ले जाने के काबिल ही नहीं हैं। रूस की जनता ने कम्युनिज़्म के आदर्शों में विश्वास करना बन्द कर दिया था। यही कारण है कि भारी आर्थिक समस्याओं से दो-चार हो रही सोवियत सत्ता का रूस में पतन हो गया।
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