पश्मीना शाल उन्नीसवीं सदी में रूस किस तरह पहुँची
अफ़नासी निकीतिन ने पन्द्रहवीं सदी में अपनी भारत यात्रा को लिपिबद्ध किया था। तभी से रूस के सम्राट भारत के साथ सीधा व्यापार करना चाहते थे। भारतीय सामान आस्त्रख़न और पुराने रेशमी मार्ग से होकर रूस पहुँचा करता था। आस्त्रख़न में तो धीरे-धीरे एक भारतीय बस्ती ही बस गई थी। उन्नीसवीं सदी के शुरू के सालों में भारत से एक अद्भुत चीज़ साँक्त पितेरबुर्ग पहुँची थी, जिसे लेकर वहाँ तहलका मच गया। यह अनोखी चीज़ थी — पश्मीना शाल।
कश्मीरी भाषा में पश्मीना का अर्थ होता है — नरम सोना। मध्य एशिया के कारवाँ व्यापारी लेह के व्यापारियों से पश्मीना शाल खरीदा करते थे। जब वे पश्मीना शाल को लेकर रूस की तत्कालीन राजधानी साँक्त पिरेतबुर्ग पहुँचे, तो वहाँ पर पश्मीना शाल की धूम मच गई।
तीन सदी पहले रूस में रहने वाले भारतीय व्यापारियों की कथा
इतिहासकार अलिक्सान्दर अन्द्रेइफ़ ने ‘तिब्बत में रूसी यात्री’ नामक अपने शोधपत्र में लिखा है — रूसी और रूस से जुड़े कारवाँ व्यापारियों में मेहती रफाइलफ़ का नाम सबसे अधिक जाना जाता है। मेहती रफाइलफ़ यहूदी था और वह काबुल का निवासी था। पहले वह सिम्योन मदातफ़ नामक एक सम्पन्न व्यापारी के यहाँ मुनीमी किया करता था। मेहती रफाइलफ़ ने 1807 में कश्मीरी शाल के कई गट्ठर साँक्त पितेरबुर्ग को सीधे सप्लाई किए थे। उल्लेखनीय है कि फैशनपरस्त रूसी स्त्रियों के बीच उन दिनों पश्मीना शाल का ख़ूब फ़ैशन था।
अलिक्सान्दर अन्द्रेइफ़ के अनुसार, जब रूसी अधिकारियों को यह बात मालूम हुई तो विदेशमन्त्री निकलाय रुमियान्त्सिफ़ ने मेहती रफाइलफ़ को बुलाकर कहा कि वह रूस और उत्तर भारत के बीच दुतरफा व्यापार शुरू करने का इन्तज़ाम करे।
1808 से 1820 के बीच मेहती रफाइलफ़ ने लद्दाख और कश्मीर की अनेक यात्राएँ कीं। ‘सोवियत रूस और तिब्बत — गुप्त राजनय का पराभव — 1918- 1930 का दशक’ नामक अपनी पुस्तक में अलिक्सान्दर अन्द्रेइफ़ ने लिखा है — मेहती रफाइलफ़ तथा दूसरे व्यापारी रूस से लद्दाख और कश्मीर जाने के लिए आम तौर पर जिस रास्ते को पसन्द करते थे, वह इरतीश नदी के तट पर स्थित सिमीपलातिन्स्क दुर्ग से शुरू होकर किर्गीज़स्तान की स्तेपी को पार करके चीनी तुर्किस्तान के कुल्जा नामक एक छोटे से शहर तक जाता था।
उल्लेखनीय है कि दक्षिण-पश्चिम साइबेरिया में स्थित सिमीपलातिन्स्क दुर्ग साइबेरिया की प्रमुख सीमावर्ती सैन्य चौकी थी, जबकि कुल्जा रूसी सीमा के सबसे नज़दीक स्थित शहर था। वहाँ से व्यापारियों का कारवाँ अक्सू और काशगर होते हुए दक्षिण दिशा में यरकन्द जाया करता था। यरकन्द के बाद यह कारवाँ ऊँची-ऊँची अनेक पर्वतमालाओं को पार करके आख़िरकार लद्दाख पहुँचा करता था।
15वीं सदी के भारत में रूसी व्यापारी अफ़नासी निकीतिन
लद्दाख के शासक ने लेह में मेहती रफाइलफ़ का स्वागत किया और उसे लद्दाख से रूस के बीच दोतरफ़ा व्यापार करने की अनुमति दे दी। रूस में पश्मीना शाल की लोकप्रियता इतनी ज़्यादा थी कि रूसी अधिकारियों ने मेहती रफाइलफ़ से कश्मीरी भेड़ों को रूस लाने के लिए भी कहा था ताकि फिर रूस में भी पश्मीना शाल को बनाया जा सके।
अलिक्सान्दर अन्द्रेइफ़ के अनुसार लद्दाख के शासकों ने कश्मीरी भेड़ों के निर्यात पर रोक लगा दी थी। इसके अलावा रूस तक की लम्बी यात्रा में कश्मीरी भेड़ों के जीवित बचने की सम्भावना भी लगभग न के बराबर थी। इस कारण मेहती रफाइलफ़ ने एक नई तरकीब सोची। उसने तय किया कि वह पश्मीना ऊन ख़रीदकर साँक्त पितेरबुर्ग ले जाया करेगा ताकि रूस में भी पश्मीना शाल तैयार की जा सके।
भारतीय नरेशों से रूस का सम्पर्क
रूस के सम्राट अलिक्सान्दर प्रथम ने मेहती रफाइलफ़ की भारत यात्राओं में विशेष दिलचस्पी दिखाई। वे भारतीय राजाओं के साथ व्यापारिक रिश्ते बनाने के लिए काफ़ी उत्सुक थे। लगभग उसी समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी भारत में अपने पैर फैला रही थी। रूस भी भारतीय राजे-रजवाड़ों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाना चाहता था।
मेहती रफाइलफ़ ने लद्दाख, कश्मीर और पंजाब के राजाओं से भेंट की। 1819 में रूस के नए विदेशमन्त्री कंस्तन्तीन निसेलरोदे ने मेहती रफाइलफ़ के हाथ इन राजाओं को पत्र भेजे।
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अलिक्सान्दर अन्द्रेइफ़ के अनुसार, एक ही ढर्रे पर लिखे गए इन सभी पत्रों में कंस्तन्तीन निसेलरोदे ने लिखा था कि रूस के सम्राट अलिक्सान्दर प्रथम को मेहती रफाइलफ़ के माध्यम से लद्दाख, कश्मीर और पंजाब के शासकों के गौरव, वैभव व शक्ति का पता चला है। उन्हें यह भी ज्ञात हुआ है कि आप लोगों ने अपने राज्य में आने वाले रूसी यात्रियों का बड़ा सत्कार किया है। अतः सम्राट ने मुझे यानी कंस्तन्तीन निसेलरोदे को यह निर्देश दिया है कि मैं अपने ‘विश्वासपात्र व कर्तव्यपरायण अधिकारियों’ के माध्यम से आप नरेशों के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करूँ ताकि रूसी और भारतीय व्यापारी ‘एक-दूसरे के यहाँ बिना रोक-टोक आ-जा सकें।
पंजाब के महान शासक महाराजा रणजीत सिंह ने तो अँग्रेज़ों को दूर भगाने के लिए रूसी सम्राट से सहायता भी माँगी थी। उल्लेखनीय है कि उन दिनों अँग्रेज़ महाराजा को अपने अधीन लाने की पूरी चेष्टा कर रहे थे।
कंस्तन्तीन निसेलरोदे द्वारा लिखे गए इन पत्रों से यह साफ़ हो जाता है कि रूस भारत के राजाओं के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाना चाहता था, जबकि अँग्रेज़ भारत को जीत कर उसे अपना उपनिवेश बनाने के लक्ष्य पर काम कर रहे थे।
1820 में भारत की एक यात्रा के दौरान मेहती रफाइलफ़ बीमार पड़ गया और उसकी मृत्यु हो गई। कुछ किताबों में यह दावा भी किया गया है कि उसकी हत्या हुई थी। मेहती रफाइलफ़ ने 12 वर्ष तक रूस और भारत के बीच एक व्यापारी और राजनीतिक दूत के रूप में काम किया। उसने रूस को लद्दाख, कश्मीर और उत्तर भारत के अन्य भागों के बारे में विस्तार से जानकारी दी।
अलिक्सान्दर अन्द्रेइफ़ ने लिखा है — मेहती रफाइलफ़ ने व्यापार और राजनय को बड़ी सफलता के साथ एक सूत्र में बाँध दिया था। उसने बड़ी कुशलता से राजदूत की भूमिका का निर्वाह किया और वह रूस और उत्तर भारत के बीच विश्वस्त रिश्ते विकसित करने में सफल रहा।
मेहती रफाइलफ़ की मृत्यु के चालीस वर्ष बाद भारत पूरी तरह से अँग्रेज़ी शासन के अधीन हो गया था। उसके बाद भारत 1947 तक अँग्रेज़ी साम्राज्य का ही एक अंग रहा। 1947 में धूर्त अँग्रेज़ों ने भारत को धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया क्योंकि उन्हें डर था कि आज़ाद भारत की सरकार रूस की समर्थक होगी। भारत-विभाजन के कुछ ही वर्षों बाद तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान चीन के अधीन हो गए और मध्य एशिया से होकर गुज़रने वाला रूस तथा भारत के बीच का आसान थलमार्ग लगभग स्थाई रूप से बन्द हो गया।
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