भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में रूस की भूमिका
1905 की पहली रूसी क्रान्ति ने भारतीय क्रान्तिकारियों के सपनों को पंख लगा दिए थे। महात्मा गाँधी पहली रूसी क्रान्ति को ’वर्तमान सदी की महानतम घटना’ और ’भारतीयों के लिए एक बड़े पाठ’ के रूप में देखते थे। गाँधीजी ने कहा था कि भारत भी ’निरंकुश शासन के विरुद्ध रूस के इस प्रतिरोध’ को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।
कांग्रेस पार्टी के ‘नरम धड़े’ और ‘गरम धड़े’ से इतर भारत में ऐसे क्रान्तिकारी भी थे, जो क्रान्तिकारी तरीकों का इस्तेमाल करके स्वाधीनता प्राप्त करने के पक्षधर थे। पहली रूसी क्रान्ति का इन भारतीय क्रान्तिकारियों के मन पर भी गहरा प्रभाव पड़ा और वे रूसी क्रान्तिकारियों के पदचिह्नों पर चलने के लिए प्रेरित हुए।
25 मई 1906 को ‘बंगाली’ अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा — सालों के ख़ूनख़राबे के बाद रूस में जो क्रान्ति हुई है...उससे दूसरे देश और उन देशों की सरकारों को भी काफ़ी कुछ सीखना चाहिए।
रूसी लोग कम्युनिस्ट क्यों बन गए थे?
तभी ‘युगान्तर’ नामक समाचार-पत्र ने धमकी भरी भाषा में लिखा था — हर देश में ऐसी बहुत सी गुप्त जगहें होती हैं, जहाँ पर हथियारों का निर्माण किया जा सकता है। इस अख़बार ने क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने हेतु डाकख़ानों, बैंकों और सरकारी कोषागारों को लूटने का समर्थन किया था। ‘युगान्तर’ ने यह भी लिखा कि यूरोपीय लोगों पर गोली चलाने के लिए बहुत अधिक शारीरिक ताक़त की भी ज़रूरत नहीं है।
‘इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट’ यानी भारतीय समाजशास्त्री नामक पत्रिका ने दिसम्बर 1907 के अपने अंक में लिखा था — भारत में केवल गुप्त आन्दोलन ही चलाए जाने चाहिए। रूसी तरीकों को ज़ोर-शोर से अमल में लाने पर ही अंग्रेज़ों को होश में लाया जा सकता है। जब तक भारतभूमि पर अंग्रेज़ों का निरंकुश शासन समाप्त नहीं हो जाता और उन्हें भारत के बाहर नहीं खदेड़ दिया जाता, तब तक हमें लगातार रूसी तरीकों से काम करते रहना चाहिए।
इन आग उगलते लेखों का असर भी जल्दी ही दिखाई देने लगा। साल भर के अन्दर ही भारत के कोने-कोने में बम फूटने लगे और गोलियाँ चलने लगीं। 30 अप्रैल 1908 को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने मुजफ़्फ़रपुर में एक गाड़ी पर बम फेंका। इनका निशाना मुख्य प्रान्तीय मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड था, किन्तु दुर्भाग्य से वह बच गया और उस गाड़ी में यात्रा कर रहीं दो औरतों की जान चली गई।
बम फेंकने वाले इन वीर युवकों की प्रशंसा करते हुए ‘काल’ नामक समाचार-पत्र ने लिखा — स्वराज पाने के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार हैं। अब वे अंग्रेज़ी शासन का और झूठा प्रशस्तिगान नहीं कर सकते। उनके दिल से अंग्रेज़ी शासन का डर निकल चुका है। भारत के भीतर अंग्रेज़ी शासन अब केवल अपने क्रूर सैनिकों के बल पर ही टिका हुआ है। भारत के भीतर बम फेंके जाने की घटनाएँ रूस की घटनाओं से काफ़ी हद तक अलग हैं। रूस में जब कहीं बम फेंके जाने की घटना होती है, तो वहाँ बहुत से लोग अपनी सरकार का भी पक्ष लेते हैं और बम फेंकने वालों का विरोध करते हैं। भारत में कहीं पर भी बम फेंके जाने की घटना होने पर लोग बम फेंकने वाले क्रान्तिकारियों के खिलाफ़ सरकार के पक्ष में ज़रा-सी भी सद्भावना रखते होंगे, इस बात को लेकर भारी सन्देह है। तो जब इसी तरह की परिस्थितियों में रूसी लोगों को अपना प्रतिनिधि सदन ‘दूमा’ मिल सकता है, तो भारत को स्वराज्य क्यों नहीं प्राप्त हो सकता?
रूस-भारत रिश्तों की शुरूआत कैसे हुई थी?
प्रफुल्ल चाकी ने पकड़े जाने पर स्वयं ही अपना अन्त कर लिया, जबकि मात्र 18 वर्षीय वीर खुदीराम बोस को अंग्रेज़ों ने फाँसी पर चढ़ा दिया। गाँधीजी के राजनीतिक गुरु माने जाने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने क्रान्तिकारियों का पक्ष लिया और अविलम्ब स्वराज्य की मांग की। उन्हें बन्दी बना लिया गया और अंग्रेज़ों की दिखावटी फर्जी अदालत ने उन्हें छह साल के कारावास की सज़ा देकर बर्मा भेज दिया।
लोकमान्य तिलक पर अभियोग चलाए जाने के कुछ ही दिनों बाद रूस के महान नेता व्लदीमिर लेनिन ने 'विश्व राजनीति का ज्वलन्त मुद्दा' नामक एक लेख लिखा। उन्होंने लिखा कि भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन के ज़ोर पकड़ने से क्रोधित होकर अंग्रेज़ ’क्रूर पाशविक शक्ति का प्रदर्शन’ कर रहे हैं। विदेशी शासन-व्यवस्था के खिलाफ़ आम जनता के उठ खड़े होने पर वैसे भी यूरोप के क्रूर राजनेताओं का असली रूप सामने आ ही जाता है।
लेनिन ने आगे लिखा था — भारत में अंग्रेज़ी शासन व्यवस्था के नाम पर भारी हिंसा और लूट का नंगा नाच चल रहा है। वैसे यह बात भी सच है कि पूरी दुनिया में भारत जैसी भीषण ग़रीबी और भयंकर भुखमरी और कहीं देखने को नहीं मिलेगी। हाँ, सिर्फ़ रूस को ही इस मामले में अपवाद माना जा सकता है। जिन लोगों को ब्रिटेन में सबसे उदार और सुधारवादी माना जाता है, वे भी जब भारत में नियुक्त होते हैं… तो उनमें चंगेज़ खान की आत्मा प्रवेश कर जाती है। ये तथाकथित महापुरुष अपने पद के तहत आने वाले भारतीय लोगों को शान्त करने के लिए कोई भी आदेश जारी करने से बिल्कुल परहेज नहीं करते। हालत यह है कि इन निर्लज्ज अंग्रेज़ अधिकारियों को राजनीतिक विरोधियों पर कोड़े बरसाने का आदेश देने में भी तनिक-सी हिचक नहीं होती!
लोकतान्त्रिक विचारों में आस्था रखने वाले भारतीय नेता लोकमान्य तिलक को कायर अंग्रेज़ों द्वारा सुनाए गए कारावास के दण्ड की भर्त्सना करते हुए लेनिन ने यह भविष्यवाणी की कि चूँकि भारतीय लोगों ने राजनीतिक जनान्दोलन का फल चख लिया है, तो ’भारत में अंग्रेज़ी शासन की समाप्ति एक न एक दिन होकर ही रहेगी’।
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लेनिन ने आगे लिखा था — एशियाई देशों में भयानक लूट मचाकर यूरोपीयों ने कम से कम एक एशियाई देश जापान की तो आँखें खोल ही दी हैं। जापान के खाते में अद्भुत सैन्य विजयें दर्ज हैं, जिनके कारण उसकी स्वाधीनता बची हुई है और जापान का लगातार विकास हो रहा है। भारत में काफ़ी लम्बे समय से अंग्रेज़ों की लूट चल रही है और ये सभी तथाकथित ‘उन्नत’ यूरोपीय लोग ईरान व भारत के निवासियों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का लगातार दमन करने में लगे हुए हैं। किन्तु मुझे अब इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि इन यूरोपीय लोगों के इन्हीं कुत्सित कर्मों के कारण एशिया के लाखों-करोड़ों सर्वहारा जन आखिरकार इन आततायियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए बाध्य हो जाएंगे और अपने जापानी भाइयों की ही तरह इन पर विजय प्राप्त करेंगे।
लेनिन और गाँधी
क्रान्तिकारी विचारों के आधार पर देखा जाए, तो लेनिन और गाँधी एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत सिरों पर खड़े थे। न केवल उनके राष्ट्रीय व व्यक्तिगत लक्ष्यों में ही भिन्नता थी, बल्कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए भी वे बिल्कुल अलग-अलग तरीकों की पैरवी किया करते थे।
‘युद्ध और शान्ति का विचार : पश्चिमी सभ्यता का अनुभव’ नामक अपनी पुस्तक में इरविंग लूई हरोविट्ज ने लिखा है कि गाँधी और लेनिन के विचारों में भले ही भिन्नता हो, किन्तु अपने-अपने महान राष्ट्रों के असंख्य जनसमूह द्वारा उनका अनुगामी होने की विशेषता इन दोनों महापुरुषों के बीच एक गहरा रिश्ता तो बना ही देती है।
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने भी लेनिन और गाँधी के बीच आपसी सम्बन्ध की इस प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है — उधर रूस में महापुरुष लेनिन के नेतृत्व में अक्तूबर क्रान्ति हो रही थी और इधर लगभग उसी समय के आस-पास भारत में हमारे स्वाधीनता संग्राम का भी एक नया दौर शुरू हो रहा था। हमारे देशवासी अपूर्व साहस व धैर्य के साथ इस संघर्ष में कई सालों से लगे हुए थे। गाँधीजी के नेतृत्व में हमने भले ही एक अलग रास्ता अपनाया, किन्तु लेनिन के अप्रतिम कार्यों का हमारे ऊपर निश्चित रूप से असर तो पड़ा ही।
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इरविंग लूई हरोविट्ज के अनुसार जब गाँधीजी ने कहा था कि ’राष्ट्र क्रमिक विकास तथा क्रान्ति, दोनों तरीकों से आगे बढ़े हैं’ और ’इतिहास तथाकथित क्रमबद्ध विकास से कहीं अधिक अद्भुत क्रान्तियों का अभिलेख होता है’, तो वह कहीं न कहीं लेनिन के विचारों के साथ सहमति ही दर्शा रहे थे और यह बात सिर्फ एक संयोग मात्र नहीं थी।
इसके अलावा लेनिन अक्सर समाजवाद की गाँधीवादी परिभाषा पर भी ज़ोर दिया करते थे, जिसके अनुसार समाजवाद आर्थिक सम्बन्धों के रूपान्तरण से कहीं अधिक मानवीय मनोवृत्ति के रूपान्तरण की प्रक्रिया है।
इरविंग लूई हरोविट्ज की राय में गाँधीजी और लेनिन, दोनों ही महापुरुषों में अपने-अपने सिद्धान्तों के प्रति अगाध समर्पण की भावना मौजूद थी, लेकिन इसके बावजूद वे अपने सिद्धान्तों के राजनीतिक इस्तेमाल के समय काफ़ी लचीलापन भी दिखाया करते थे। इरविंग लूई हरोविट्ज ने लिखा है — तो एक ओर जहाँ हम देखते हैं कि शान्तिवादी गाँधी राष्ट्रीय संकट की स्थिति में राष्ट्रीय सेनाओं की उपयोगिता को लेकर सहमति रखते थे, हाँ, यह बात सही है कि वह सेना के आकार को छोटा से छोटा रखने के पक्षधर थे; तो वहीं दूसरी ओर लेनिन वर्ग शक्तियों के विकास की प्रक्रिया में मध्यम वर्ग संसदीय प्रणाली की उपयोगिता को भी स्वीकार करते थे। वैयक्तिक गुणों के मामले में भी गाँधीजी और लेनिन में काफी कुछ समानता थी। ये दोनों ही नेता व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं से दूर रहा करते थे और लक्ष्य प्राप्ति के लिए सादगी का जीवन बिताने में विश्वास करते थे।
एक अलग रास्ता
हालाँकि रूसी क्रान्तिकारी और लाल सेना के संस्थापक लेफ़ त्रोत्सकी गाँधीजी को एक छद्म स्वतन्त्रता सेनानी मानते थे।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के ठीक पहले ‘भारतीय श्रमिकों के नाम खुला पत्र’ में उन्होंने लिखा था — भारत का बुर्जुआ वर्ग क्रान्तिकारी संघर्ष का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं है। अंग्रेज़ों के साथ उसके गहरे रिश्ते हैं और वह उन पर काफी अधिक निर्भर है….भारत के इस हीन बुर्जुआ वर्ग के नेता व आराध्य हैं – गाँधी। यह छद्म नेता बिल्कुल बगुला-भगत है! गाँधी और उनके चेले-चपाटों ने यह सिद्धान्त विकसित किया है कि भारत की स्थिति में लगातार सुधार आएगा। भारत को प्राप्त स्वतन्त्रता धीरे-धीरे लगातार बढ़ती जाएगी और शान्तिपूर्ण सुधारों के मार्ग पर चलता हुआ भारत धीरे-धीरे बेहद प्रभावशाली हो जाएगा। इसी रास्ते पर चलते हुए भारत को बाद में पूर्ण स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो सकती है। यह पूरा नज़रिया सिरे से ही ग़लत है।
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त्रोत्सकी के अनुसार, इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है कि ग़ुलामों के मालिकों ने स्वेच्छा से अपने ग़ुलामों को आज़ाद कर दिया हो। यदि भारतीय नेता यह आशा रखते हैं कि विश्व युद्ध में उनके सहयोग के बदले में अंग्रेज़ भारत को आज़ाद कर देंगे, तो यह उनकी भयंकर भूल है।
अद्भुत दूरदृष्टि से त्रोत्सकी ने यह भविष्यवाणी की थी — सबसे पहली बात तो यह है कि उपनिवेशों का पहले से भी अधिक भीषण तरीके से शोषण होने लगेगा। साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों से औने-पौने दाम पर प्राप्त की गई खाद्य सामग्रियों और कच्चे माल से पट जाएंगे। यही नहीं, वे अपने उपनिवेशों के ग़रीब और लाचार लोगों को भारी संख्या में अपनी साम्राज्यवादी सेना में भर्ती करेंगे और ये बेचारे मज़बूर लोग साम्राज्यवादी हितों के लिए लड़ी जा रही लड़ाइयों में अकारण ही भारी संख्या में हताहत होंगे।
त्रोत्सकी का मानना था कि युद्धग्रस्त ब्रिटेन के पुनर्निर्माण के लिए अब भारत का पहले से भी कई गुना अधिक शोषण किया जाएगा। उन्होंने लिखा — गाँधी इस तरह की नीति के लिए पहले से ही मार्ग प्रशस्त करने में लगे हुए हैं। यदि भारत की जनता गाँधी की राजनीति के पीछे चलती है, तो द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेज़ों का सहयोग करने के पुरस्कार स्वरूप उन्हें सिर्फ़ एक ही चीज़ मिलेगी — वह यह कि उनकी ग़ुलामी की बेड़ियाँ पहले से दुगुनी मजबूत हो जाएँगी।
यदि आज़ाद हिन्द फौज ने अपने अपूर्व साहसिक कृत्यों से अंग्रेज़ों के हृदय में भय का संचार न किया होता, तो त्रोत्सकी की ये सभी भविष्यवाणियाँ निःसन्देह सच हो गई होतीं। 1946 में 20 हज़ार भारतीय नौसैनिकों के विद्रोह और भारतीय थलसेना व भारतीय वायुसेना के भी इस विद्रोह में शामिल होने की पूरी सम्भावना के खतरे को देखते हुए अंग्रेज़ों के पसीने छूट गए और दुनिया के सबसे अमानुषिक साम्राज्य का समय आख़िरकार पूरा हो गया।
इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं।
यह लेख पहली बार 2014 में रूस-भारत संवाद की अँग्रेज़ी वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था।
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