युद्ध होने पर भारत रूस से कैसी सहायता चाहता है?
1971 की भारत-पाक लड़ाई में रूस ने भारत का साथ दिया था
किसी भी लड़ाई में अन्तरराष्ट्रीय समर्थन से बहुत लाभ होता है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की त्वरित व निर्णायक विजय में रूसी सहायता की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही। रूस ने भारत विरोधी पश्चिमी देशों तथा चीन को इस युद्ध से दूर रखा, जिसके कारण भारतीय सेना कोई दूसरा या तीसरा मोर्चा खुलने की चिन्ता किए बिना अपना काम कर सकी।
3 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तानी वायुसेना ने भारत के 11 हवाई अड्डों पर अन्धाधुन्ध बमबारी की थी। तब भारत ने आधिकारिक रूप से युद्ध की घोषणा कर दी और पाकिस्तान में काफी भीतर तक जाकर हवाई हमले करने शुरू कर दिए। इधर भारतीय सेना ने पूर्वी व पश्चिमी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना की कमर तोड़ी तो उधर दुनिया भर के देशों में खेमेबन्दी शुरू हो गई।
रूस व उसके सहयोगी देश भारत के साथ थे। पश्चिमी देशों और भारत के गुटनिरपेक्ष सहयोगी देशों का झुकाव पाकिस्तान की ओर था। 4 दिसम्बर को सँयुक्त राष्ट्र में अमरीका के तत्कालीन राजदूत जार्ज एच० बुश – जो बाद में अमरीका के राष्ट्रपति भी बने – ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें भारत और पाकिस्तान से युद्धविराम करने और अपनी-अपनी सेनाओं की वापिस बुलाने करने की माँग की गई थी। चूँकि केवल भारतीय सेनाएँ ही पाकिस्तान की सीमा के भीतर थीं, इसलिए इस प्रस्ताव का उद्देश्य भारत पर दबाव बनाना था। इस प्रस्ताव को 104 देशों का समर्थन मिला। केवल 10 देशों ने ही भारत का पक्ष लिया। आख़िरकार रूस ने इस प्रस्ताव को वीटो कर दिया।
भारत रूस का प्राथमिकता प्राप्त विशेष सहयोगी है — पूतिन
लड़ाई में भारत की ज़बरदस्त जीत होने से पश्चिमी देश परेशान हो गए। वे नहीं चाहते थे कि उनके सहयोगी पाकिस्तान को करारी हार का अपमान झेलना पड़े। युद्धविराम का दबाव बनाने के लिए अमरीका ने सँयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के ख़िलाफ़ दो निन्दा-प्रस्ताव पेश किए। हालाँकि रूस ने भारत विरोधी सभी प्रस्तावों को वीटो लगाकर रोक दिया।
भारतीय नेता रूस के राजनयिक व सैन्य समर्थन को लेकर कितने अधिक निश्चिन्त थे, इसका पता इस बात से लगता है कि जब अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने बंगाल की खाड़ी में अमरीकी युद्धपोतों का सातवाँ बेड़ा भेजा, तब भी वे बिल्कुल बेफिक्र रहे। साफ़ है कि अमरीका के इस क़दम को भारत के शहरों पर परमाणु बमबारी करने की धमकी के तौर पर लिया गया।
अमरीका की युद्धपोत-कूटनीति को लेकर भारत की शान्त प्रतिक्रिया का अन्दाज़ा एक घटना से लगाया जा सकता है। एक बार तीनों सेनाओं के प्रमुख प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी को युद्ध सम्बन्धी जानकारियाँ दे रहे थे। तत्कालीन नौसेनाध्यक्ष एडमिरल एस० एम० नन्दा ने कहा — मैडम, अमरीका का सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में पहुँच चुका है। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद एडमिरल नन्दा ने फिर से कहा — मैडम, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में पहुँच चुका है। इन्दिरा जी ने उनकी बात को काटते हुए कहा — एडमिरल, मैं आपकी बात को पहली बार में ही सुन चुकी हूँ, आप लोग लड़ाई के बारे में जानकारी देने का काम जारी रखें।
प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी इसलिए बेपरवाह थीं क्योंकि भारत और रूस ने कुछ महीने पहले ही भारत-सोवियत शान्ति, मैत्री व सहयोग सन्धि पर हस्ताक्षर किए थे। इस सन्धि की एक गुप्त धारा के अनुसार, भारत पर आक्रमण होने की स्थिति में रूस के लिए भारत की सहायता करना ज़रूरी था। इन्दिरा गाँधी जानती थीं कि यदि अमरीका या चीन भारत पर हमला करेंगे, तो रूस भारत की सहायता करेगा। उल्लेखनीय है कि चीन के सिंकियांग प्रान्त की सीमा पर रूसी सेना की टुकड़ियाँ परमाणु बम फेंकने वाली तोपों के साथ तैयार खड़ी थीं।
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सँयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी नौटंकी
पाकिस्तानी सेना लगातार मार खा रही थी और उसका हौसला पूरी तरह से पस्त हो चुका था। इसके बाद सँयुक्त राष्ट्र में रखे गए प्रस्तावों पर रूस द्वारा वीटो लगाए जाने पर पाकिस्तानी नेताओं का मनोबल बिल्कुल ही ध्वस्त हो गया। 15 दिसम्बर को जब पाकिस्तानी सेना समर्पण करने जा रही थी, उस समय पाकिस्तान के विदेशमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो सँयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से बाहर आकर बोले — मुझे इस परिषद से घृणा हो गई है। मैं इन लोगों का चेहरा दुबारा नहीं देखना चाहता। अब यहाँ रहने से क्या फ़ायदा? मेरे लिए इसकी बजाय बरबाद हो चुके पाकिस्तान वापस लौट जाना ही ठीक है।
थोड़ी देर पहले ही सुरक्षा परिषद की बैठक के दौरान जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने काग़ज़ात फाड़कर फेंक दिए थे और वहाँ खड़े होकर यह आख़िरी बात कही थी —
— अध्यक्ष महोदय, मैं चूहा नहीं हूँ। मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी कायरता नहीं दिखाई। मुझ पर जानलेवा हमले हुए हैं, मैं जेल में रहा हूँ। आज मैं यहाँ से भाग नहीं रहा, बल्कि निराश होकर आपकी सुरक्षा परिषद से बाहर जा रहा हूँ।
— अब यहाँ एक पल भी और रहना मेरी और मेरे मुल्क की बेइज़्ज़ती होगी। चाहे कोई भी फ़ैसला थोपिए, वर्साय से भी बदतर सन्धि कीजिए या हमले और जबरदस्ती कब्ज़े को मान्यता दीजिए – मैं उसमें हिस्सा नहीं लूँगा। हम लड़ेंगे। मेरा मुल्क मेरी बातों को सुन रहा है।
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— मैं यहाँ सुरक्षा परिषद में अपना समय क्यों ख़राब करूँ? मैं अपने मुल्क के आधे हिस्से के शर्मनाक समर्पण में हिस्सा नहीं लूँगा। आप अपनी सुरक्षा परिषद अपने पास रखें; मैं तो जा रहा हूँ।
भुट्टो ने आगे कहा — हम इस वीटो से बहुत निराश हुए हैं। आइए, इस वीटो का एक स्मारक बनाएँ। इसे नपुंसकता व अक्षमता का स्मारक बनाएँ।
सोवियत प्रतिनिधि याकफ़ मलीक की ओर मुड़कर भुट्टो ने कहा — आप अपनी छाती ठोंकिए और मेज़ें थपथपाइए। आप कामरेड मलीक की तरह नहीं, बल्कि ज़ार मालिक की तरह बात कर रहे हैं। मुझे ख़ुशी है कि आप मुस्कुरा रहे हैं। लेकिन मेरा दिल जल रहा है।
भविष्य का युद्ध परिदृश्य
यह बात साफ़ है कि रूस द्वारा वीटो लगाए जाने से भारत को अन्तरराष्ट्रीय आलोचना का सामना करने में आसानी हुई। 1971 में पश्चिमी जगत और चीन, रूस के साथ-साथ भारत के भी विरोधी थे। लेकिन अब लगभग पाँच दशक के बाद परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल चुकी हैं। अब रूस तथा चीन भारत के ‘आधे सहयोगी’ हैं, जबकि भारत और अमरीका अपने बीच के पुराने मतभेदों को भुलाकर मैत्रीपूर्ण रिश्ते बना चुके हैं।
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दोनों ही देशों के लिए एक अच्छा समाचार यह है कि भारत को अब रूसी वीटो की ज़रूरत नहीं रही। भारत ने गुटनिरपेक्षता के अव्यावहारिक विचार को तिलांजलि दे दी है और अपनी आर्थिक सफलता के लिए दुनिया भर में उसकी सराहना होती है। भविष्य में कोई युद्ध होने पर यह बात असम्भव है कि भारत को सँयुक्त राष्ट्र में किन्हीं प्रस्तावों का सामना करना पड़ेगा। यही नहीं, आज पूरी दुनिया को पता है कि पाकिस्तान आतंक का निर्यात करता है। इस कारण कुछ अरब देशों को छोड़कर कोई भी अन्य देश भारत पर अधिक दबाव नहीं डालेगा।
1971 तथा आज की स्थितियों में एक और बड़ा फ़र्क यह है कि भारत आज सैन्य दृष्टि से एक शक्तिशाली देश बन चुका है और उसे रूसी नौसैनिक बेड़े की सुरक्षा की ज़रूरत नहीं है। हालाँकि भारत दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध करने में अभी भी शायद पूरी तरह से सक्षम नहीं है, लेकिन पाकिस्तान को तो वह ज़रूर बड़ी आसानी से मसल कर रख देगा।
हालाँकि भारत को यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि भले ही अमरीका का विदेश मन्त्रालय भारत के प्रति समर्थन का खूब दिखावा कर रहा है, लेकिन उसका रक्षा मन्त्रालय अपने व्यवहार में अधिक ईमानदार और साफ़ है। अमरीका का रक्षा मन्त्रालय आज भी पाकिस्तान को संरक्षण दे रहा है। अमरीकी सेना अमरीकी सरकार के उच्चाधिकारियों को भूसामरिक दृष्टि से दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण देशों में से एक पाकिस्तान से रिश्ते नहीं तोड़ने देगी। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ़ इसी हफ़्ते अमरीकी विदेशमन्त्री जॉन केरी के साथ देखे गए।
भविष्य में कोई भी युद्ध होने पर भारत रूस से बस, इतनी ही अपेक्षा रखता है कि वह हथियारों के कल-पुर्जों की आपूर्ति को लगातार जारी रखे। भारत के सैन्य साजो-सामानों का 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा रूस में बना हुआ है। भारत रूस से कम से कम इतनी तो अपेक्षा रखता ही है कि उसे कल-पुर्जों की निर्बाध व सतत सप्लाई मिलती रहेगी।
अमरीका में बने पाकिस्तानी वायुसेना के अधुनातन एफ़-104 स्टारफ़ाइटर लड़ाकू विमानों के विरुद्ध भारतीय वायुसेना के मिग-21 विमानों की ज़बरदस्त सफलता के कारण ही रूस को इराकी वायुसेना से मिग-21 विमानों का बड़ा भारी आर्डर मिला था। दूसरे ग्राहक देशों से उलट, भारत ने अनेक लड़ाइयों में रूसी हथियारों का बहुत प्रभावी और मारक उपयोग किया है। इस कारण भारत द्वारा सफलतापूर्वक युद्ध करना रूस के भी हित में है क्योंकि हथियारों की मार्केटिंग के लिए वास्तविक युद्ध के अलावा और कौन सी जगह अधिक ठीक हो सकती है।
यदि रूस खुले तौर पर भारत को सैन्य सहायता देगा, तो भारत उसके इस क़दम का स्वागत करेगा। लेकिन यदि वह केवल हथियारों और कल-पुर्जों की निर्बाध सप्लाई भी जारी रखेगा, तो उससे भी भारत के लक्ष्य की पूर्ति हो जाएगी।
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