क्या पुराने रूस में भारत के कुलीन लोग भी आकर रहे थे?
उन्नीसवीं सदी के आख़िर में भारत में यह अफ़वाह फैली हुई थी कि विख्यात मराठा योद्धा नाना साहब अभी भी ज़िन्दा हैं। कानपुर की हार के बाद नाना साहब अचानक पूरी तरह से गायब हो गए थे। उन्हें छोड़कर 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के अन्य सभी नेता या तो वीरगति को प्राप्त हो चुके थे या उन्हें अँग्रेज़ों ने फाँसी पर चढ़ा दिया था। केवल यही बात साफ नहीं थी कि नाना साहब का क्या हुआ। भारत के विभिन्न भागों में उनके “देखे जाने” की ख़बरें आती रहीं। बहुत से लोगों का यह भी मानना था कि नाना साहब रूस के ज़ार से मदद माँगने के लिए रूस चले गए हैं।
लेकिन इस बात का कोई सबूत आज तक नहीं मिला है कि नाना साहब कभी रूस गए थे। शायद उनके संगी-साथी और समर्थक यह मानने को तैयार नहीं थे कि 1857 में उनकी मौत हो गई है, इसलिए उन्होंने ही इस तरह की अफवाहें फैला दी थीं। पर सच बात तो यह है कि बिना आग के धुआँ नहीं निकलता। उन्नीसवीं सदी में भारत के कुलीन परिवारों के अनेक सदस्य, सचमुच रूस में रहा करते थे। उनमें से कुछ लोग तो बस नाम और लोकप्रियता पाने के चक्कर में ही वहाँ पर बस गए थे क्योंकि उन दिनों रूस के लोग “भारत के राजे-रजवाड़ों” की झलक भर पाने के लिए भी खूब उत्सुक रहा करते थे।
नाना साहब की तस्वीर, 1860।
यह ठीक है कि कुछ ऐसे भारतीय लोग भी थे, जो अंग्रेज़ों से आज़ादी पाने का सपने देखा करते थे और इसके लिए वे रूस की मदद लेना चाहते थे। ऐसे लोगों के जीवन के आधार पर आज बड़ी सनसनीखेज फ़िल्में बनाई जा सकती हैं।
बीजापुरी पोरस
एक नौजवान ने बीजापुर राजवंश से होने का दावा किया था। वह सच बोल रहा है या झूठ, इसे जान पाना तब सम्भव नहीं था। उसे देखकर सिर्फ़ यही मालूम होता था कि वह भारत का रहने वाला है। उसने फ्राँस में शिक्षा पाई थी और वह ईसाई बन गया था। ईसाई बनने के बाद उसने अपना नाम बदलकर अलेक्जैण्डर रख लिया था। बीजापुर के राजवंश के इस तथाकथित वंशज ने मकदूनिया के सिकन्दर से युद्ध करने वाले प्राचीन भारतीय नरेश पोरस यानी पुरु के सम्मान में ‘पोरस’ कुलनाम भी रख लिया था।
रूस-भारत रिश्तों की शुरूआत कैसे हुई थी?
बीजापुर का यह ’राजकुमार’ अठारहवीं सदी के आठवें दशक के आख़िरी सालों में रूस आया था। रूस में आकर उसने रूस की सेना में नौकरी कर ली थी। पाविल प्रथम के शासनकाल में वह हुस्सार रेजीमेण्ट में कर्नल हो गया था। बीजापुर का यह राजकुमार पोरस अपने तरह-तरह के अजीब कामों के लिए साँक्त पितेरबुर्ग (सेण्ट पीटर्सबर्ग) में मशहूर हो गया था। रूस की अनेक साहित्यिक रचनाओं में इस ‘भारतीय राजकुमार’ का उल्लेख पाया जाता है। अलिक्सान्दर ग्रिबयिदफ़ द्वारा रचित विश्वप्रसिद्ध नाटक ‘ज़्यादा दिमाग भी दुख का कारण होता है’ में भी उसका ज़िक्र मिलता है। इस ‘राजकुमार’ ने एक रूसी लड़की से शादी की थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक लिखी गई बहुत-सी किताबों में के उसके पारिवारिक इतिहास का उल्लेख मिलता है।
नाना साहब का ‘भतीजा’ मध्य एशिया में
रामचन्द्र बालाजी का यह दावा था कि वह नाना साहब का भतीजा है। वैसे इस बात की काफी सम्भावना थी कि उसका रिश्ता सचमुच किसी कुलीन मराठा परिवार से हो और 1857 के प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के बाद वह यूरोप पहुँच गया हो। 1877-1878 के रूस-तुर्की युद्ध के समय रामचन्द्र बालाजी रूस की सेना में भर्ती हो गया था। और इस लड़ाई के बाद वह साँक्त पितेरबुर्ग आ गया था।
उस समय रूस के लोगों के बीच नाना साहब का नाम काफ़ी विख्यात था। जल्दी ही नाना साहब के ‘भतीजे’ का परिचय रूस के मशहूर भूगोलविज्ञानी प्योतर सिम्योनफ़-त्यानशन्स्की से हो गया। प्योतर सिम्योनफ़-त्यानशन्स्की ने मध्य एशिया की एक वैज्ञानिक खोजयात्रा के लिए रामचन्द्र बालाजी के नाम की सिफ़ारिश भी की थी।
इस खोजयात्रा का प्रमुख उद्देश्य तुर्किस्तान के परिवेश और भूगोल की जानकारी लेना था। उल्लेखनीय है कि तुर्किस्तान कुछ साल पहले ही रूस में शामिल हुआ था। रामचन्द्र काफी पढ़ा-लिखा आदमी था। हालाँकि इस अभियान के दौरान उसने सभी वैज्ञानिक गतिविधियों में भाग लिया, किन्तु उसके अपने भी कुछ लक्ष्य थे। वह इस क्षेत्र में बसे भारतीयों के साथ सम्पर्क कायम करके अफ़गानिस्तान के रास्ते भारत लौटना चाहता था।
वो बड़ा खेल : जब रूस भारत पर चढ़ाई करना चाहता था
रामचन्द्र रूस और ब्रिटेन के बीच उन दिनों चल रहे ‘बड़े खेल’ में फँस गया। दुर्भाग्य से रूस और ब्रिटेन, दोनों ही उसे शत्रु पक्ष का मोहरा समझा करते थे। 1881 में रूसी अधिकारियों के आदेश पर रामचन्द्र बालाजी को रूस छोड़ना पड़ा। इसके बाद के उसके जीवन के बारे में हमें साफ-साफ कुछ पता नहीं है।
पंजाब के अन्तिम महाराजा
महाराजा दिलीप सिंह के राजपरिवार से सम्बन्धित होने को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। सब जानते हैं कि वे सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे पुत्र थे।
द्वितीय अँग्रेज़-सिख युद्ध (1848-1849) के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया था। 1849 में दिलीप सिंह केवल 11 वर्ष के थे। पंजाब की पराजय के कारण वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक “सम्मानित क़ैदी” बन गए। और 1854 में उन्हें ब्रिटेन निर्वासित कर दिया गया। ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के एक निष्ठावान नागरिक बनकर रहें। उन्हें अच्छी-खासी पेंशन दी गई थी और रानी विक्टोरिया उनके बच्चों की धर्ममाता बन गईं।
लेकिन उन्नीसवीं सदी का नौवाँ दशक शुरू होते-होते दिलीप सिंह और अँग्रेज़ों के आपसी रिश्ते बिगड़ चुके थे। दिलीप सिंह भारत की यात्रा करना चाहते थे, किन्तु अँग्रेज़ सरकार डर रही थी कि सिख समुदाय दिलीप सिंह के भारत जाने पर उत्साह में आकर विद्रोह कर सकता है क्योंकि कुछ सिख अभी भी दिलीप सिंह को ही अपना राजा मानते थे।
दिलीप सिंह यह भी चाहते थे कि अँग्रेज़ सरकार पंजाब की उनकी पारिवारिक जागीर उन्हें वापस कर दे लेकिन अँग्रेज़ अधिकारियों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
रूसी वैज्ञानिकों ने वैदिक काल के आनुष्ठानिक पेय का रहस्य उजागर किया
इसके बाद दिलीप सिंह ने अँग्रेज़ों के साथ सभी रिश्ते तोड़कर रूस के साथ सम्पर्क कायम करने का फ़ैसला किया। उन दिनों मध्य एशिया में ब्रिटेन और रूस के बीच चल रहा ‘बड़ा खेल’ अपने चरम पर था, इसलिए दोनों देशों के आपसी रिश्ते बेहद ख़राब थे। पंजाब की गद्दी खो चुके दिलीप सिंह को उम्मीद थी कि रूस के ज़ार अलिक्सान्दर तृतीय पंजाब की गद्दी वापस पाने में उनकी मदद करेंगे।
पंजाब में विद्रोह शुरू करने के दिलीप सिंह के प्रस्ताव को लेकर रूस सरकार पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी। इसके बावजूद दिलीप सिंह काफ़ी प्रभाव रखने वाले रूसी अख़बार ‘मस्कवा समाचार’ के सम्पादक मिखाइल कतकोफ़ के साथ सम्पर्क स्थापित करने में सफल रहे।
रूस के भारतविज्ञ अलिक्सेय राइकफ़ ने अपनी किताब ‘विद्रोही महाराजा’ (2004) में लिखा है कि मिख़ाइल कतकोफ़ ने दिलीप सिंह को रूस आने का निमन्त्रण दिया। सिख साम्राज्य के पूर्व नरेश दिलीप सिंह अपने परिवार के साथ 1887 में मस्कवा पहुँचे।
राजा दिलीप सिंह के आगमन पर मस्कवा में काफी हलचल रही। दिलीप सिंह ने रूसी पत्रकारों को दर्जनों साक्षात्कार दिए और यह दावा किया कि वे ही आज भी ’पंजाब के शासक’ हैं।
हालाँकि उनका असर अब बहुत ज़्यादा नहीं रह गया था। पंजाब में सक्रिय दिलीप सिंह के समर्थकों को अँग्रेज़ अधिकारियों ने बन्दी बना लिया था। रूसी सरकार भी ब्रिटिश साम्राज्य के साथ संघर्ष शुरू नहीं करना चाहती थी।
दिलीप सिंह मस्कवा में लगभग दो साल तक रहे, किन्तु आख़िरकार उन्होंने अँग्रेज़ों के साथ फिर से रिश्ते कायम करने का फ़ैसला किया।
उन दिनों भारत, अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया की सीमाओं के आर-पार जाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था। इसलिए ऐसा लगता है कि बहुत से भारतीय वास्तव में रूस पहुँचे होंगे। इस दिशा में और अधिक शोध होने पर सम्भव है कि अभी तक अज्ञात बहुत-सी कड़ियों पर कुछ रोशनी पड़े।
(रूस में रामचन्द्र बालाजी के रहने से जुड़ी जानकारी ‘उन्नीसवीं सदी में रूस-भारत सम्बन्ध,’ मस्कवा 1997 नामक दस्तावेज़-संग्रह से ली गई है।)
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